यह किसी दरबारी षड्यंत्र से भरी काली रात है
नहीं टिमटिमाता कोई जुगनू तक।
खर-पतवार की चमक से जरूर
किसी रोशनी का भ्रम होता कभी-कभार।
इसमें कत्ल होने के लिए लोगों को तैयार किया जाता।
जनता को धीमी आँच पर पकाकर
बारिश की ठंडी फुहारों में थोड़ी देर के लिए भिगोया जाता है।
फिर उन्हें रेगा करने के देसी नुस्ख़े इस्तेमाल किए जाते,
जैसे धारा के विपरीत चलना और
जेठ की दुपहरी में तपना सिखाना।
यह खतरनाक निष्कर्षों की लंबी रात है
सब धान बाइस पसेरी ही ठहरते इसमें।
भोजन का अधिकार वे तय करते
जिन्हें सताने का साहस भूख कर ही न सकी कभी,
जो इतने अघाए हुए हैं
कि अखबार में मोटापा घटाने
और चर्बी हटाने के तरीके ही पढ़ते केवल।
जिनके जीवन का लक्ष्य
व्यवस्था के बुनयादी बदलाव के साथ-साथ
स्लिम दिखना है।
यह समय के गर्भ में
आक्रोशों के बवंडर के बावजूद चुप और गूँगी रात है,
चुप रहने का अघोषित फरमान गूँजता है हवाओं में,
किसे कहते हैं बोलना और सुनना,
इसकी अंतिम परिभाषा तय नहीं अभी तक,
लेकिन मशक्कत जारी है।
यह तमाम कोशिशों के
बाकायदा नाकाम होते चले जाने की अभागी रात है।